बंधा हूँ
कब का
रिश्तों के बंधन में
तो ज़िंदा हूँ
इच्छाओं के
जंगल में घूमता हूँ
तो ज़िंदा हूँ
भावनाओं से
अपनी मैं खेलता हूँ
तो ज़िंदा हूँ
कोशिश है
ज़िन्दगी को देखने की
तो ज़िंदा हूँ
बंधा हूँ
घहरे अरमानों से
बंधा हूँ
और पैमानों से
बंधा हूँ
सराबोर मयखानों से
नशे में हूँ इतना
इसलिए
तो ज़िंदा हूँ
दम भरता हूँ
अहंकार का
कर लेता हूँ
सजदा सरकार का
असंतुलन में
बंधा हूँ
तो ज़िंदा हूँ
नासमझी के बिस्तर पर
लेटा हूँ
लेटा हूँ
अँधेरी सी गलियों में
खोया हूँ
खोया हूँ
तकलीफ में हूँ
इसलिए
तो ज़िंदा हूँ
खुल गया होता
इच्छाओं, भावनाओं, अरमानों से
छूट गया होता
मैं से, पैमानों, मयखानों से
समझा ही होता
तकलीफ को अगर
अँधेरा मिट गया होता
संतुलित हो गया होता
तो न जाने
कब का
मर गया होता
कब का
मिट गया होता
धन्यवाद
- हरीश
11-05-2012
Beautiful !!
ReplyDeletewah wah!!!
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