न जाने क्यूँ ?
न जाने क्यूँ ,
उजड़ी सी ये बस्ती लगती है ?
न जाने क्यों ,
टूटी सी ये कश्ती लगती है !
परिस्थतियों के खेल में हमेशा ,
न जाने क्यूँ ,
उलझी सी ये जिंदगी लगती है !
हमने तो ,
संवारने की बहुत की कोशिश ,
लेकिन , ये दुनिया ,
न जाने क्यों ,
हमे उलझाए रखती है ?
मन तो था ही चोट खाया हुआ ,
अब तो ,
दिमाग पे भी चोट हुयी लगती हैं ?
ऐहसास ठोकरों का पहले ही उबरने नहीं देता ,
न जाने क्यों ?
और हमे ठोकरें लगती हैं !
भीड़ में चाहते हैं गुजारना वक़्त सारा ,
न जाने ये तन्हाई क्यों हमे तन्हा रखती है !
न जाने क्यों ,
उजड़ी सी ये बस्ती लगती है ?
न जाने क्यों ?
अधूरी सी ये जिंदगी लगती है ?
हरीश
11 /04 /2008
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