तो जिन्दा हूँ
रिश्तों के बंधन में ,
तो जिन्दा हूँ !
इच्छाओं के जंगल में घूमता हूँ ,
तो जिन्दा हूँ !
भावनाओं से अपनी मैं खेलता हूँ ,
तो जिन्दा हूँ !
कोशिश है ,
जिंदगी को देखने की,
तो जिन्दा हूँ !
बंधा हूँ ,
गहरे अरमानो से ,
बंधा हूँ ,
मय से पयमानो से,
बंधा हूँ,
सरोबार मयखानों से ,
नशे में हूँ इतना ,
इसलिए
तो जिन्दा हूँ !
दम भरता हूँ ,
अहंकार का ,
फिर
कर लेता हूँ ,
सजदा सरक़ार का ,
असंतुलन से बंधा हूँ ,
तो जिन्दा हूँ !
नासमझी के बिस्तर पे लेटा हूँ ,
अँधेरे की गलियों में खोया हूँ ,
तकलीफ में हूँ ,
इसलिए
तो जिन्दा हूँ !
खुल गया होता ,
इच्छाओं , भावनाओं, अरमानों से ,
छूट गया होता ,
मय से, पैमानों से , मयखानों से ,
समझा होता ,
तकलीफ को अगर ,
अँधेरा मिट गया होता ,
संतुलित हो गया होता !
तो न जाने कब का ,
मर गया होता !
हरीश
11 /08 /2012
No comments:
Post a Comment
Thank you for your comments!